हम तो जैसे जंगल में नहीं, अंधेरे के कुएं में रह रहे हैं। कभी बिजली आती थी, तो थोड़ा आसरा रहता था। लेकिन पिछले तीन सालों से गांव का सोलर प्लांट भी खराब पड़ा है और इसकी मरम्मत की गुहार सिर्फ कागजों में घूम रही है। शिकायतें जिला क्रेडा अधिकारी तक भी पहुंची, लेकिन जवाब वही पुराना देख रहे हैं, जल्द होगा। कब होगा? इसका जवाब किसी के पास नहीं। गांव वाले बताते हैं कि बरसात शुरू होते ही उनका जीवन और कठिन हो जाता है। रास्ते बह जाते हैं, बिजली तो पहले से ही नहीं है, मोबाइल नेटवर्क तक फेल हो जाता है, और सांप-बिच्छुओं की धमक हर घर में होती है। हालात इतने खराब हैं कि इस बार जिला प्रशासन ने पक्का मान लिया कि ये गांव मानसून में कट जाएगा इसलिए पांच महीने का राशन एक साथ दे दिया गया। लेकिन राशन दे देने से क्या हर समस्या का हल हो जाता है? नहीं। पानी कहां से आएगा? इलाज के लिए कौन जाएगा? बच्चे कैसे पढ़ेंगे? बीमार कैसे जिएंगे?
इस पूरे मसले पर जब धमतरी कलेक्टर अविनाश मिश्रा से सवाल किया गया तो उन्होंने स्वीकार किया कि यह क्षेत्र यूएसटीआर के अंतर्गत आता है यानी टाइगर रिज़र्व क्षेत्र के पास, जिससे कुछ पर्यावरणीय बाधाएं हैं। हमने इसके लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजा है और जैसे ही अनुमति मिलती है, काम शुरू कर दिया जाएगा। कलेक्टर ने यह भी कहा कि अनुमानित लागत का प्रस्ताव भेजा गया है और क्रेडा सहित अन्य विभागीय पहलुओं को देखने के लिए स्थल निरीक्षण भी किया जाएगा। अब सवाल यह है क्या किसी गांव को सिर्फ इसलिए मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहना चाहिए क्योंकि वो टाइगर रिज़र्व के पास है? क्या हर साल 5 महीने का राशन देकर बाकी 7 महीने की अंधेरी जिंदगी को जायज़ ठहराया जा सकता है? क्या विकास का मतलब सिर्फ शहरों की सड़कों पर लाइटें जलाना है? गाताबहारा की कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं, पूरे सिस्टम की तस्वीर है, जहां योजनाएं कागजों में और रोशनी नेताओं की घोषणाओं में सिमट कर रह जाती हैं।यह खबर सिर्फ सूचना नहीं है एक चीख है, जो अंधेरे में दब तो गई है, लेकिन सवाल करती है क्या आज़ादी के इतने सालों बाद भी कुछ गांवों की किस्मत में सिर्फ अंधेरा ही लिखा है?
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