दुर्गेश साहू, छत्तीसगढ़। कभी घर-घर में गूंजने वाला सुवा गीत, अब खामोशी में खोता जा रहा है। वो आवाज़ें, जो शहर से गांवों की गलियों को जीवन देती थीं अब बस यादों में बाकी हैं।पहले जब दीपोत्सव नजदीक आता था, तो माहौल कुछ अलग ही होता था। महिलाएं और बच्चियां हाथों में टुकना लेकर, पिल्ली की थाप पर सुवा गीत गाते हुए घर-घर घूमती थीं। लकड़ी से बना सुवा (तोता), मिट्टी की खुशबू, और लोकगीतों की मधुर लय इन सबसे पूरा गांव जीवंत हो उठता था। लेकिन अब वो दिन दूर हो गए। जहां पहले हर गली मोहल्ले में सुवा गीतों की गूंज सुनाई देती थी, अब वहां मोबाइल की रिंगटोन और स्पीकर की आवाज़ें सुनाई देती हैं। आधुनिकता ने बहुत कुछ दिया, लेकिन कहीं न कहीं हमारी परंपराएं इसकी चपेट में आ गईं। लोकजीवन के जानकार बताते हैं कि सुवा गीत सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ की आत्मा है। इन गीतों में प्रेम, अपनापन, श्रम, उत्सव और भावनाओं की गहराई छिपी होती है। आज नई पीढ़ी न तो सुवा गीत के बोल जानती है, न इसका अर्थ। कई जगह तो यह परंपरा पूरी तरह लुप्त हो चुकी है। अगर हमने इसे आज नहीं संभाला, तो आने वाले वर्षों में सुवा गीत सिर्फ किताबों या डॉक्युमेंट्री में रह जाएगा। त्योहारों की असली खूबसूरती तभी लौटेगी जब हम फिर से अपनी मिट्टी की संस्कृति से जुड़ेंगे।
अब सवाल यही है जब नवरात्र में लोग गरबा और डांडिया पर थिरक सकते हैं, तो अपनी ही परंपरा के सुवा गीत पर झूमने में हिचक क्यों? कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ियां सिर्फ सुनें कभी हमारे गांवों में सुवा गीत गाया जाता था…

0 Comments